मौर्य साम्राज्य का इतिहास (Mauryan Empire in Hindi)
मौर्य साम्राज्य का काल 321 ईसा पूर्व से 298 ईसा पूर्व तक रहा है। मौर्य साम्राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राजवंश में से एक था। मौर्य साम्राज्य की स्थापना का मुख्य श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उसके प्रधानमंत्री चाणक्य को जाता है।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु चाणक्य की सहायता से 321 ईसा पूर्व में किया था। इस साम्राज्य का विस्तार पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों से शुरू हुआ था, जो वर्त्तमान में बिहार एवं बंगाल है, तथा इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। मौर्य वंश ने 316 ईसा पूर्व तक पुरे उत्तरी पश्चिम भारत पर अपना अधिकार कर लिया था। मौर्य वंश का सबसे महान शासक सम्राट अशोक हुआ था, जो अपने शक्तिशाली एवं महान होने के कारण विश्व प्रसिद्ध हुए।
मौर्य साम्राज्य के प्रमुख शासक
चन्द्रगुप्त मौर्य (321 ईसा पूर्व से 298 ईसा पूर्व)
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु चाणक्य (विष्णुगुप्त, कौटिल्य) की सहायता से नन्द वंश के अंतिम शासक घनानंद को हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य की जाती के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है। ब्राह्मण साहित्य में इन्हें शूद्र, बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ में इन्हें क्षत्रीय, रोमिला थापर ने इन्हें वैश्य जाती का माना है।
मगध के सिंहासन पर बैठकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली, जो सम्पूर्ण भारत में फैल गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर, नन्दों का उन्मूलन कर, सेल्यूकस को पराजित कर, संधि विवश कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की एवं इसकी सीमाएँ उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सोपारा तथा सौराष्ट्र तक फैली हुई थी।
305 ईसा पूर्व में यूनानी शासक सेल्यूकस एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच युद्ध हुआ, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य विजयी हुआ। तत्पश्चात दोनों के बीच सन्धि संपन्न हुई, जिसके अनुसार सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ अपनी पुत्री हेलेना के विवाह में दहेज़ के रूप में एरिया, अराकोसिया, जेड्रोसिया एवं परिपेमिस्डाई के क्षेत्रों को दिया। प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए। सेल्यूकस ने अपने एक राजदूत मेगास्थनीज़ को चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था।
अपने जीवन के अंतिम चरण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन संत भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा लेकर कर्नाटक के मैसूर में स्थित श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पहाड़ी पर लगभग 298 ईसा पूर्व में उपवास के द्वारा शरीर त्याग दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महानविजेता होने के साथ-साथ एक योग्य शासक भी था। एक विशाल साम्राज्य पर शासन करने वाला वह भारत प्रथम शासक था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे दूसरे शासकों ने भी अपनाया। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन की मुख्य विशेषता सत्ता का अधिक विकेन्द्रीकरण, विकसित अधिकारी तंत्र, उचित न्याय व्यवस्था, नगर शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, व्यापार एवं वाणिज्य की वृद्धि के लिए राज्य द्वारा अनेक कारगर उपाय किये थे।
बिन्दुसार (298 ईसा पूर्व से 272 ईसा पूर्व)
चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार मौर्य साम्राज्य का अगला शासक बना, जिसे यूनानी लेखक अमित्रोचिड्स कहते थे। वायुपुराण में बिन्दुसार को ‘भद्रसार’ तथा जैनग्रन्थ में ‘सिंहसेन’ कहा गया है। दिव्यावदान नामक ग्रन्थ में बिन्दुसार के समय में तक्षशिला के दो विद्रोहों का वर्णन किया गया है, जिसे दबाने के लिए बिन्दुसार ने पहले अपने पुत्र अशोक को भेजा, उसके बाद सुसीम को भेजा था।
स्ट्रैबो के अनुसार, यूनानी शासक एण्टियोकस ने बिन्दुसार के दरबार में ‘डाइमेकस’ नामक राजदूत को भेजा था, जिसे मेगस्थनीज़ का उत्तराधिकारी प्रशासनिक क्षेत्र में बिन्दुसार अपने पिता चन्द्रगुप्त मौर्य के जैसा ही शासन एवं उसने साम्राज्यों को प्रान्तों में विभाजित कर प्रत्येक प्रान्त में कुमार या उपराजा नियुक्त किया। दिव्यावदान के अनुसार अवन्ति राष्ट्र का उपराजा अशोक था।
बिन्दुसार आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था। उसके सभा में आजीवक परिब्राजक निवास करते थे। चाणक्य तीन मौर्य सम्राटों के राज्य के प्रधानमंत्री रहे थे, जिनकी मृत्यु के पश्चात् राधागुप्त उत्तराधिकारी बने।
अशोक (273 ईसा पूर्व से 232 ईसा पूर्व)
सम्राट अशोक के जीवन की प्रारंभिक जानकारी हमे बौद्ध साक्ष्यों जैसे दिव्यादान तथा सिंहली ग्रंथों से मिलती है। दिव्यादान के अनुसार सम्राट अशोक माता का नाम सुभदांग्री मिलता है। सिंहली के अनुसार सम्राट अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या करके मगध की गद्दी पर बैठा था। करीब चार वर्षों के सत्ता संघर्ष के बाद अशोक का अभिषेक 269 ईसा पूर्व में हुआ था।
सम्राट अशोक ने अपने अभिषेक के आठवें वर्ष लगभग 261 ईसा पूर्व में कलिंग पर आक्रमण किया। हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि संभवतः कलिंग पर नंदराज नाम का कोई राजा शासन करता था एवं उस समय कलिंग की राजधानी ‘तोसली’ थी। कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय में अशोक के तेरहवें अभिलेख में विस्तृत वर्णन मिलता है।
कल्हण के राजतरंगणी के अनुसार सम्राट अशोक ने कश्मीर में वितस्ता नदी के किनारे श्रीनगर नामक नगर की स्थापना की। सम्राट अशोक के प्राप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसका साम्राज्य उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त (अफगानिस्तान), दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में काठियावाड़ एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैला था।
तिब्बत के जैन श्रुति के अनुसार अशोक ने नेपाल में ‘ललिपत्तन’ नामक एक नगर बसाया था। लुम्बिनी यात्रा क समय उसने वहाँ भूमि कर की दर 1/6 से घटाकर 1/8 कर दिया। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने ‘भेरी घोष’ को त्याग कर ‘धम्म घोष’ को अपनाया।
अशोक का धम्म
सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक विकास के लिए जिन आचारों की संहिता के पालन की बात कही, उसे ही अशोक का धम्म कहा गया। ‘भाबू’ (विराट) लघु शिलालेख में ही अशोक के धम्म का उल्लेख मिलता है। इसी लघु शिलालेख में अशोक में ‘त्रिसंघ’ में विश्वास प्रकट किया है। ये त्रिसंघ हैं- बुद्ध, धम्म और संघ। इसे त्रिरत्न भी कहा जाता है । अशोक के धम्म के मूल सूत्र है-
संयम (इन्द्रियों पर नियंत्रण)
भावशुद्धि (विचारों की पवित्रता)
कृतज्ञता
दृढ भक्ति
दया
शौच (पवित्रता)
सत्य
सुश्रुत सेवा
दान
सम्प्रतिपत्ति (सहायता करना)
अपिचित्ति (आदर)
अशोक के अभिलेख
सम्राट अशोक के इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी हमें उसके अभिलेखों से मिलती है। अभी तक सम्राट अशोक के लगभग 40 अभिलेखों की प्राप्ति हुई है। इन सभी अभिलेखों में चार लिपियों का प्रयोग हुआ है- ब्राह्मी, खरोष्ठी, ग्रीक एवं आरमेइक।
अशोक ने राष्ट्रीय भाषा एवं लिपि के रूप में पालि भाषा का प्रयोग किया था। अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में विभाजित किया गया है- शिलालेख, स्तम्भलेख एवं गुहालेख।
मौर्य प्रशासन
मौर्य प्रशासन के अंतर्गत सत्ता का केन्द्रीकरण होते हुए भी राजा अपने अधिकारों को लेकर सौम्य एवं सौहार्द तरीके से जनता पर राज करते थे। इस समय राजतंत्रात्मक व्यवस्था काफी मजबूत हुआ करती थी। इस साम्राज्य में राजा के पास समस्त अधिकार एवं शक्तियां होती थी, जिसमें विशेष कर सैनिक, न्यायिक, वैधानिक एवं कार्यकारी मामलों में पूरा अधिकार प्राप्त था।
मौर्य काल में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था होती थी, जिसमें 12, 16 या 20 सदस्य होते थे। अर्थशास्त्र में पहली बार चक्रवर्ती शब्द का उल्लेख हुआ है। अर्थशास्त्र में शीर्ष अधिकारी के रूप में तीर्थ का उल्लेख मिलता है, इसे महामात्र भी कहा जाता था, जिसकी संख्या 18 होती थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ पुरोहित होते थे।
मौर्य साम्राज्य में आर्थिक स्थिति
मौर्य साम्राज्य में भारत एक कृषि प्रधान देश था। इसमें राजा की आय का मुख्य स्रोत भूमिकर था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में तीन प्रकार की भूमि का वर्णन किया है- कृष्ट भूमि (जुती हुई), आकृष्ट भूमि (बिना जुती हुई) तथा स्थल भूमि (ऊँची)
सीताभूमि उस भूमि को कहा जाता था, जो सरकारी होता था एवं इसका देख रेख सीताध्यक्ष नामक अधिकारी द्वारा किया जाता था। मौर्य काल में भूमि कर उपज का 1/6 या 1/4 भाग लिया जाता था ।
मौर्य काल में सामाजिक स्थिति
मौर्य काल के सामजिक स्थिति के बारे में कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज के इंडिका एवं अशोक के अभिलेख में मिलती है। मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात भागों में विभाजित किया है-
दार्शनिक
किसान
अहीर
कारीगर या शिल्पी
सैनिक
निरीक्षक
सभासद
मेगस्थनीज के अनुसार मौर्यकाल में कोई भी अपनी जाती से बाहर शादी नहीं कर सकता था।
मौर्य काल में शिक्षा एवं साहित्य
मौर्य काल में तक्षशिला शिक्षा और साहित्य का प्रधान केंद्र था। कोशल राजा प्रसेनजीत एवं मगध शासक चन्द्रगुप्त ने वही पर शिक्षा प्राप्त किया था। इस काल में महत्वपूर्ण ग्रन्थ अर्थशास्त्र, अष्टाध्यायी पर कात्यायनी की वर्तिका, सुबंधु का वासवदत्ता आदि था।
मौर्य युगीन कला का वर्णन
मौर्य काल में कला के दो रूप मिलते हैं-
राजकीय कला, जो मौर्य काल के महलों एवं अशोक स्तम्भ में पाई जाती है।
लोक कला, जो परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर, ग्रहिणी एवं बेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है ।
मौर्य कला के सर्वोत्कृष्ट नमूनों में अशोक के एकाश्मक स्तम्भ हैं, जो उसने धम्म के प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में निर्मित करवाये थे, जिनकी संख्या लगभग 20 है। प्रमुख स्तम्भों में सारनाथ का स्तम्भ सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। इसके फलक पर चार सजीव सिंह पीठ से पीठ सटाए हुए चारो दिशाओं में मुँह किये बैठे हैं। यह चक्रवर्ती सम्राट अशोक की शक्ति का प्रतिक है। सिंहों के मस्तक पर महाचर्म चक्र स्थापित था, जिसमे 32 तीलियाँ थी। यह शक्ति के धर्म की विजय का प्रतिक है। इसी पर चार पशुओं- गज, अश्व, बैल तथा सिंह की आकृतियां उत्कीर्ण है। इसमें हाथी के गर्भस्थ होने का, बैल जन्म का, अश्व गृहत्याग का एवं सिंह सार्वभौम सत्ता का प्रतीक है।
अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में एक नई शैली में चट्टानों को काटकर कंदराओं के निर्माण को प्रोत्साहन दिया। गया के निकट बराबर पहाड़ में निर्मित सुदामा की गुफा तथा कर्णचौपड की गुफा आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दान के दिया।
मौर्य काल का अंत
इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में काफी मतभेद है। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति को मौर्य वंश के पतन कारण माना है। कुछ विद्वानों ने अशोक की अहिंसक एवं शांतिप्रिय नीति को मौर्य वंश के पतन का कारण माना है। डी एन झा ने कमजोर उत्तराधिकारी तथा डी डी कौशाम्बी ने मौर्यकालीन संकटग्रस्त आर्थिक स्थिति को पतन के लिए जिम्मेदार ठहराया है। जबकि डॉ रोमिला थापर के अनुसार केंद्रीकृत मौर्य प्रशासन के लिए योग्य शासकों का अशोक के बाद अभाव हो गया जिसे मौर्य काल के पतन का जिम्मेदार माना।
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नीचे दिए गए प्रश्नो के उत्तर आप कमेंट बॉक्स में जरूर दें ।
मौर्य राजवंश का उदय कब हुआ?
मौर्य वंश का तीसरा शासक कौन था?
भारत का पहला राजा कौन है?
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन काल कब से कब तक चला?
मौर्य वंश के बाद कौन सा वंश है?