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History of Jainism in Hindi| जैन धर्म का इतिहास

History of Jainism

जैन धर्म का इतिहास | History of Jainism

जैन शब्द ‘जिन’ से बना है। ‘जिन’ अर्थात जैन शब्द का अर्थ है- विजेता (जिसने इन्द्रियों को जीत लिया हो)। ‘जिन’ शब्द का सर्वप्रथम उपयोग जैन धर्म के 24वें एवम अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के लिए किया गया है। जैन धर्म का नाम महावीर स्वामी के काल से अस्तित्व में आया है। उसके पूर्व जैन धर्म को निर्ग्रन्थ अथवा निर्गण्ड कहा जाता था। प्रारंभिक जैन धर्म का इतिहास भगवतिसूत्र, कल्पसूत्र एवं परशिष्टपर्वन नामक ग्रंथ में मिलता है। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए।

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History of Jainism in Hindi

जैन धर्म के संस्थापक, प्रवर्तक एवं पहले तीर्थंकर स्वामी ऋषभदेव थे, जिनका जन्म इक्ष्वाकु में हुआ था। ऋषभदेव का प्रतीक चिन्ह साँड़ है। प्रारंभिक भागवतपुराण में ऋषभदेव को विष्णु का अवतार माना गया है। ऋषभदेव की मृत्यु अट्ठवाय अर्थात कैलाश पर्वत पर हुई थी।

जैन धर्म के 23वें एवं प्रथम ऐतिहासिक तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे, जो काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे। पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की अवस्था में घर का त्याग कर सम्मेदपर्वत पर कठोर तपस्या करके 84वें दिन कैवल्य की प्राप्ति की। पार्श्वनाथ का प्रतीक साँप था। इन्होंने करीब 70 वर्ष तक साकेत, राजगृह, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, श्रावस्ती में जैन धर्म का प्रचार किया तथा 100 वर्ष की आयु में इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई। पार्श्वनाथ की प्रथम अनुयायी इनकी माता वामा तथा इनकी पत्नी प्रभावती थी।

महावीर स्वामी का जीवन परिचय एवं उपदेश | Biography and teachings of Mahavir Swami

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ था। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। ये क्षत्रिय वर्ण एवं ज्ञातृक कुल के थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। इनके पिता वज्जि संघ के प्रमुख सदस्य थे। महावीर का विवाह यशोदा नाम की स्त्री से हुआ था। बाद में वे एक पुत्री के पिता बने।

महावीर ने 30 वर्ष की अवस्था में अपने बड़े भाई नंदिवर्धन की आज्ञा लेकर घर का त्याग कर दिया। 13 वर्ष की उम्र से ही पूर्णतया वस्त्र का त्याग कर नंगे रहने लगे। महावीर स्वामी ज्ञान की खोज में सर्वप्रथम नालंदा गए, जहाँ पर उनकी मुलाकात मक्खलीपुत्र गोशाल से हुई। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात 42 वर्ष की उम्र में महावीर स्वामी को जृम्भिका ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई।

ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी को केवलिन, जिन, अर्ह, निर्ग्रंथ जैसी उपाधि प्रदान की गई। ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ने चम्पा, वैशाली, राजगृह, श्रावस्ती, अंग, कौशल, विदर्भ, मगध इत्यादि स्थानों पर भ्रमण करके अपने मत का प्रचार प्रसार किया।

30 वर्ष तक लगातार जैन धर्म का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में 468 ईसा पूर्व में राजगृह के समीप स्थित पावापुरी नामक स्थान पर मल्ल राजा सस्तिपाल के राजप्रासाद में महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ।

महावीर स्वामी द्वारा जैन धर्म के पांच महाव्रतों का विवरण निम्नवत है-

1. अहिंसा- सभी प्रकार की मानसिक, कायिक एवं वाचिक हिंसा से बचने की बात कही गई है।

2. सत्य- इसमें सदा सत्य एवं मधुर वचन बोलने की बात कही गई है।

3. अपरिग्रह- इसमें भिक्षुओं को सब प्रकार के संपत्ति अर्जन से बचने की बात कही गई है।

4. अस्तेय- इसमें अनुमति के बिना दूसरे की संपत्ति ग्रहण करने से बचने की बात कही गई है।

5. ब्रह्मचर्य- इसमें भिक्षुओं को पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की बात कही गई है। गृहस्थ जीवन वालों के लिए अणुव्रत का पालन करने की बात कही गई है।

त्रिरत्न

जैन धर्म में पूर्व जन्म के कर्मफल को समाप्त करके इस जन्म के कर्मफल से बचने के लिए त्रिरत्न का पालन करने की बात कही गई है। ये त्रिरत्न निम्नवत है-

1. सम्यक ज्ञान- सत्य का ज्ञान।

2. सम्यक श्रद्धा- सत्य में विश्वास।

3. सम्यक आचरण- सच्चरित्रता एवं सदाचरण का पालन करते हुए सम्यक आचरण करना।

महावीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह सिंह है।

जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। जैन धर्म का महत्वपूर्ण ग्रंथ कल्पसूत्र संस्कृत में लिखा गया है। स्थापत्य कला के अंतर्गत जैन धर्म से संबंधित महत्वपूर्ण मंदिर हाथीगुम्फा मंदिर (उड़ीसा), दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू (राजस्थान), गोमतेश्वर प्रतिमा (कर्नाटक), खजुराहो में निर्मित पार्श्वनाथ, आदिनाथ का मंदिर महत्वपूर्ण है।

प्रथम जैन संगीति का आयोजन 322 से 298 ईसा पूर्व के बीच पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुआ, जिसके अध्यक्ष स्थूलभद्र थे। इसमें जैन धर्म को दो भागों श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में बाँटा गया।

द्वितीय जैन संगीति का आयोजन 512 ईस्वी में बल्लभी में हुआ, जिसके अध्यक्ष देवर्धिगणि थे। इसमें जैन धर्म के ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया एवं 84 आगमों की संख्या निर्धारित की गई।

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