शेयर क्या होता है? (What is Share)
पूँजी बाजार (कैपिटल मार्केट) में निवेश करने के कई तरीके हैं, जैसे—शेयर, बांड्स, डिबेंचर, म्यूचुअल फंड या निवेश की अन्य प्रतिभूतियाँ (सिक्यूरिटीज) इत्यादि। प्रत्येक प्रकार के निवेश की कुछ विशेषताएँ, लाभ तथा उद्देश्य व कारण होते हैं। निवेश के इन विभिन्न तरीकों में शेयर द्वारा शेयर बाजार में किया गया निवेश सर्वाधिक लोकप्रिय व आम है।
शेयर का हिंदी में अनुवाद करें तो इसका अर्थ होता है—बाँटना। वास्तव में यह प्रक्रिया बाँटने की ही है। दरअसल शेयर किसी कंपनी में आंशिक भागीदारी (स्वामित्व) प्राप्त करने का तरीका है। किसी कंपनी के शेयर खरीदने का तात्पर्य है कि व्यक्ति उस कंपनी का आंशिक हिस्सेदार बन रहा है।
इस प्रकार के निवेश में कंपनी की हिस्सेदारी से जुड़े फायदे हैं तो कंपनी के व्यापार से जुड़े खतरे भी शामिल होते हैं। कंपनी के शेयर खरीदना तथा बेचना निवेश की गतिविधियाँ हैं।
वह निवेशक, जो किसी कंपनी का शेयर खरीद लेता है, तब वह उस कंपनी का ‘शेयर होल्डर’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में, शेयर की खरीदारी को ‘इक्विटी की खरीदारी’ भी कहा जाता है तथा शेयर होल्डर को इक्विटी होल्डर या इक्विटी शेयर होल्डर भी कहा जाता है।
यदि आप शेयर की जगह ‘इक्विटी’ व ‘स्क्रिप्स’ शब्द सुनें तो भ्रमित होने की जरूरत नहीं है; क्योंकि तीनों का अर्थ एक ही है। शेयर को हमेशा कंपनी के साथ जोड़कर समझा जाना चाहिए।
शेयरों के लेन-देन की प्रक्रिया क्या होता है?
शेयरों की खरीद-बिक्री दो तरीकों से की जाती है—वे कंपनियाँ, जो स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हैं, उनके शेयर स्टॉक एक्सचेंज में खरीदे या बेचे जाते हैं।
निवेशक ब्रोकर के माध्यम से स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध शेयरों की खरीद तथा बिक्री कर सकता है। दूसरे तरीके में निवेशक अन्य शेयर होल्डर से अथवा सीधे कंपनी से शेयरों को खरीद सकता है।
जब कंपनी पहली बार अपने शेयर आम निवेशकों के समक्ष प्रस्तुत करती है और निवेशकों को शेयर खरीदने का मौका उपलब्ध कराती है तो उसे ‘इनीशियल पब्लिक ऑफर’ कहते हैं। उसके बाद आने वाले सारे ऑफर पब्लिक इश्यू कहलाते हैं।
निवेशकों को खरीदने के लिए प्रस्तुत किए जानेवाले शेयर या तो कंपनी द्वारा जारी किए गए नए शेयर हो सकते हैं या कंपनी अपने हिस्से के शेयरों का कुछ भाग पब्लिक के लिए प्रस्तुत कर सकती है। इस प्रकार ‘शेयर’ कंपनी द्वारा आम निवेशक से पूँजी उगाहने का एक औजार है।
शेयर क्यों जारी किए जाते हैं?
चूँकि कंपनी को अपने बिजनेस के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है और यह आवश्यकता चुनिंदा लोगों द्वारा पूरी नहीं की जा सकती। अतः कंपनी अपना बिजनेस फैलाने तथा व्यापार चलाने के लिए कॉरपोरेट स्ट्रक्चर बनाकर, बड़ी संख्या में लोगों को शामिल कर उन्हें शेयर बेचती है तथा पूँजी हासिल करके अपने उद्देश्यों को पूरा करती है।
किसी सूचीबद्ध पब्लिक लिमिटेड कंपनी के शेयरों को खरीदना निवेशक के लिए अच्छा चुनाव साबित होता है; क्योंकि इसके सदस्यों की संख्या 50 से अधिक होती है तथा इसके शेयरों की बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। निवेशक अपनी इच्छा व विवेक के अनुसार किसी कंपनी के शेयर खरीदकर अच्छी कीमत आने पर बाद में उन्हें बेच सकता है। इस प्रकार वह लाभ कमा सकता है या निवेश के किसी भी विकल्प में यह धन लगा सकता है।
जब तक निवेशक शेयर होल्ड करता है, तब तक वह शेयर पर दिए गए डिविडेंड का अधिकारी होता है। शेयरों से जुड़े खतरों में यह शामिल होता है कि यदि कोई कंपनी अपना व्यापार समेटती है तो शेयरधारकों को सबसे अंत में भुगतान किया जाता है।
नियमतः ऐसी अवस्था में कंपनी अपनी सारी देनदारियाँ चुकता करने के बाद बचे हुए धन को शेयरधारकों को बाँटती है। व्यावहारिक तौर पर अधिकांश मामलों में देनदारी चुकता करने के बाद कंपनी के पास कोई धन नहीं बचता तथा तब शेयरधारकों (शेयर होल्डर्स) को कंपनी से कुछ नहीं मिलता।
किसी शेयरधारक की कंपनी में सीमित जिम्मेदारी होती है—अर्थात् उसके द्वारा खरीदे गए शेयरों की एवज में जो धन वह कंपनी को चुकाता है, उसके अतिरिक्त किसी भी स्थिति में कंपनी उससे अतिरिक्त धन की माँग नहीं कर सकती। इस प्रकार कंपनी बंद होने की स्थिति में इक्विटी शेयर होल्डर्स को सबसे ज्यादा नुकसान होता है, क्योंकि उसे पैसा वापस नहीं मिलता।
दैनिक निवेश तथा दैनिक शेयर व्यवसाय में दूसरे तरह की जोखिम (रिस्क) रहती है। प्रायः यह संभव है कि जब कोई व्यक्ति किसी दर (रेट) पर कंपनी के शेयर खरीदता है, फिर यदि शेयर बाजार में गिरावट आ जाए तो उसके शेयरों की कीमत घट जाती है। इन दरों पर शेयर बेचने पर निवेशकों को नुकसान होता है। इसके विपरीत, शेयरों की कीमत में वृद्धि होने पर शेयर बेचे जाएँ तो लाभ होता है।
शेयर कितने प्रकार के होते हैं?
इक्विटी शेयर को आम भाषा में केवल ‘शेयर’ कहा जाता है। विभिन्न प्रकार के शेयरों की अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं। अतः इनके प्रकार को समझना आवश्यक है, ताकि निवेशक अपनी जरूरत तथा विवेक के अनुसार उनका चयन कर सके।
भारत में निवेशकों को दो प्रकार के शेयर विकल्प उपलब्ध हैं—इक्विटी शेयर तथा प्रीफरेंस शेयर।
इक्विटी शेयर होल्डर या साधारण शेयर (ऑर्डिनरी शेयर) क्या होता है?
प्राइमरी तथा सेकंडरी मार्केट से निवेशक जो शेयर हासिल करता है, वह ‘साधारण शेयर’ कहलाता है। इस प्रकार का शेयरधारक कंपनी का आंशिक हिस्सेदार होता है तथा कंपनी के नफे-नुकसान से जुड़ा रहता है। साधारण शेयरधारक ही इक्विटी शेयर होल्डर होते हैं।
शेयरों की संख्या के अनुपात में कंपनी पर इनका मालिकाना अधिकार होता है। कंपनी की नीति बनानेवाली जनरल मीटिंग में इन्हें वोट देने का अधिकार होता है। इसी प्रकार, ये कंपनी से जुड़े रिस्क तथा नफा-नुकसान के हिस्सेदार भी होते हैं। यदि कंपनी अपना व्यवसाय पूर्ण रूप से समाप्त करती है, तब कंपनी अपनी सारी देनदारी चुकता करने के बाद बची हुई पूँजी संपत्ति को इन साधारण शेयरधारकों को उनकी शेयर संख्या के अनुपात से वितरित करती है।
प्रिफरेंस शेयर (तरजीह शेयर) क्या होता है?
साधारण शेयर के विपरीत कंपनी चुनिंदा निवेशकों, प्रोमोटरों तथा दोस्ताना निवेशकों को नीतिगत रूप से प्रिफरेंस शेयर (तरजीह आधार पर) जारी करती है। इन प्रिफरेंस शेयरों की कीमत साधारण शेयर की मौजूदा कीमत से अलग भी हो सकती है। साधारण शेयर के विपरीत प्रिफरेंस शेयरधारकों को वोट देने का अधिकार नहीं होता। प्रिफरेंस शेयरधारकों को प्रतिवर्ष निश्चित मात्रा में लाभांश (डिविडेंड) मिलता है। प्रिफरेंस शेयरधारक साधारण शेयरधारक की अपेक्षा अधिक सुरक्षित होते हैं, क्योंकि जब कभी कंपनी बंद करने की स्थिति आती है तो पूँजी चुकाने के मामले में प्रिफरेंस शेयरधारकों को साधारण शेयरधारकों से अधिक तरजीह दी जाती है। कंपनी अपनी नीति के अनुसार प्रिफरेंस शेयरों को आंशिक अथवा पूर्ण रूप से साधारण शेयर में परिवर्तित भी कर सकती है। जब कोई कंपनी बहुत अच्छा बिजनेस कर रही है तो उसके साधारण शेयरधारक को ज्यादा फायदा होता है। प्रिफरेंस शेयरधारक को लाभ में से सबसे पहले हिस्सा मिलता है; लेकिन इन्हें कंपनी का हिस्सेदार नहीं माना जाता है।
लाभ के आधार पर प्रिफरेंस शेयर तीन तरह के होते हैं—
1. नॉन क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर (असंचयी अधिमानित शेयर)—यदि कंपनी किसी कारणवश पहले वर्ष लाभ नहीं कमाती है और इसकी जगह दूसरे वर्ष में लाभ कमाती है तो इस स्थिति में निवेशक दोनों वर्ष में लाभ प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता है।
2. क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर (संचयी अधिमानित शेयर)—यदि कंपनी किसी वजह से पहले वर्ष लाभ नहीं कमाती और दूसरे वर्ष में लाभ की स्थिति में आती है तो इस स्थिति में निवेशक दोनों वर्ष लाभ प्राप्त करने का दावा कर सकता है।
3. रिडीम्ड क्यूमुलेटिव प्रिफरेंस शेयर (विमोचनशील अधिमानित शेयर)—इस तरह के शेयरधारक को उसकी पूँजी निश्चित समय के बाद लाभांश (डिविडेंड) के साथ लौटा दी जाती है। इस प्रकार के शेयरधारक का कंपनी से जुड़ाव पूरी तरह अल्पकालिक होता है और कंपनी की इच्छा पर निर्भर करता है।
4. कन्वर्टिबल प्रिफरेंस शेयर (परिवर्तनशील अधिमानित शेयर)—इस प्रकार के शेयर निश्चित अवधि के पश्चात् इसी कंपनी के किसी अन्य वित्तीय इंट्रूमेंट में बदल दिए जाते हैं।
बैलेंस शीट में शेयर के महत्वपूर्ण terminology
विभिन्न प्रकार के शेयरों की चर्चा के साथ यह समझना आवश्यक है कि वास्तव में ये किस प्रकार संचालित (ऑपरेट) होते हैं। यदि किसी कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट उठाकर देखें तो शेयर से जुड़े कई शब्द (टर्म) दिखाई देंगे। आइए, इन शब्दों को समझने की कोशिश करते हैं।
शेयर कैपिटल क्या होता है?
बैलेंस शीट में इक्विटी शेयर देनदारीवाले कॉलम में दर्ज होते हैं, क्योंकि यह राशि कंपनी पर शेयरधारकों की देनदारी है, नियमतः कंपनी बंद होने की स्थिति में यह राशि शेयरधारकों को चुकता की जानी चहिए। चूँकि यह राशि आय अथवा खर्च का हिस्सा नहीं है, अतः इसे हानि अथवा लाभ के खाते में नहीं दरशाया जाता, बल्कि देनदारी खाते में ‘शेयर कैपिटल’ के नाम से दर्ज किया जाता है।
ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल क्या होता है?
बैलेंस शीट में शेयर से जुड़ा एक और नाम होता है—ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल (आधिकारिक शेयर पूँजी)। यह कंपनी की कुल पूँजी का वह अधिकतम हिस्सा है, जो कंपनी शेयर जारी करके अर्जित कर सकती है। इसकी सीमा पूरी होने पर कंपनी और अधिक शेयर जारी नहीं कर सकती, जब तक कि उसकी सीमा में वृद्धि नहीं की जाए। कंपनी के मेमोरेंडम में कंपनी के उद्देश्यों के साथ ही उस कंपनी की ऑथराइज्ड कैपिटल पहले से तय की गई होती है। दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि शेयर की फेस वेल्यू (मौलिक कीमत) कितनी है। शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपए, 5 रुपए, 2 रुपए या 1 रुपए हो सकती है। इसके बाद इश्यूड शेयर कैपिटल आता है, अर्थात् बैलेंस शीट बनाते समय तक कंपनी कितने शेयर जारी कर चुकी है। ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल तथा इश्यूड शेयर कैपिटल का अंतर यह दर्शाता है कि कंपनी मेमोरेंडम के तहत और कितने शेयर जारी कर सकती है। ज्यादातर मामलों में इश्यूड शेयर कैपिटल कम रखा जाता है, क्योंकि कंपनी एक बार में ही अपनी पूरी सीमा (ऑथराइज्ड शेयर कैपिटल) को खत्म नहीं करना चाहती। इसलिए कुछ भाग ही उपयोग में लिया जाता है। कंपनी की बैलेंस शीट में इन आँकड़ों के अलावा पिछले वर्ष के आँकड़े भी कोष्ठक में रहते हैं। इससे यह अनुमान लगाने में आसानी रहती है कि गत एक वर्ष में कितना परिवर्तन आया।
सबस्क्राइब्ड कैपिटल क्या होता है?
इश्यूड शेयर का वह भाग, जो निवेशक द्वारा लिया जाता है या सबस्क्राइब्ड किया जाता है, सबस्क्राइब्ड कैपिटल कहलाता है। जब इश्यू किए गए सभी शेयर निवेशकों द्वारा ले लिये जाते हैं, तब इश्यू व सबस्क्राइब्ड कैपिटल समान होंगे। इससे शेयरों की कुल संख्या का अनुमान होता है कि कितने शेयर इश्यू किए गए और निवेशकों ने कितने लिये। शेयर कैपिटल का अंतिम स्वरूप पैडअप शेयर कैपिटल होता है। अर्थात् जारी किए गए शेयरों के तहत बैलेंस शीट बनाते समय तक कंपनी को कितनी शेयर कैपिटल मिल चुकी है।
बोनस व राइट शेयर क्या होता है?
बैलेंस शीट में कंपनी द्वारा जारी किए गए बोनस शेयरों की संख्या का उल्लेख होता है। इससे यह पता चलता है कि कंपनी के शेयर कैपिटल में कितना हिस्सा शेयर बेचकर अर्जित किया गया है तथा कितना हिस्सा निवेशकों को बोनस शेयर जारी करके शेयर कैपिटल में शामिल किया गया है। बोनस शेयर शेयरधारकों को मुफ्त में जारी किए जाते हैं।
बोनस शेयर क्यों जारी किए जाते हैं?
दरअसल, बोनस शेयर का संबंध कैपिटलाइजेशन ऑफ रिजर्व से है। इसलिए पहले हम कैपिटलाइजेशन ऑफ रिजर्व क्या है, इसे समझते हैं। दरअसल, जब कोई कंपनी अपने व्यवसाय के दौरान वित्तीय वर्ष में लाभ अर्जित करती है, तब कंपनी नियमित खर्चे निकालकर, देनदारियाँ निकालकर, लाभांश निकालकर बची हुई राशि भविष्य में विस्तार के लिए रिजर्व रखती है। साल-दर-साल इस प्रकार कंपनी का अवितरित लाभ इकट्ठा होकर रिजर्व के रूप में कंपनी के पास रहता है।
कंपनी अपनी नीतियों के अनुसार सरकारी कानूनों के तहत बोनस इश्यू जारी करके इस रिजर्व पूँजी के कुछ भाग का कैपिटलाइजेशन (पूँजीकरण) करती है। इस प्रक्रिया में तत्कालीन शेयरधारकों को उनके शेयर के अनुपात में बोनस शेयर जारी किए जाते हैं। इसे बोनस इश्यू कहते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनी का रिजर्व फंड इक्विटी में परिवर्तित होता है।
वस्तुतः यह मात्र एक बुक एंट्री है। बोनस शेयरों पर कोई कीमत नहीं वसूली जाती है तथा शेयरधारकों की संख्या भी अपरिवर्तित रहती है। इस प्रकार शेयरधारकों का आनुपातिक स्वामित्व भी अपरिवर्तित रहता है। हाँ, यह हो सकता है कि बोनस शेयर जारी करने के पश्चात् कंपनी के शेयरों की बाजार की कीमत में कुछ गिरावट आए, जो बोनस इश्यू के अनुपात में होती है। साधारणतया कंपनी प्रतिवर्ष अपने लाभांश (डिविडेंड) की दर बनाए रखती है। शेयरधारकों को बोनस इश्यू मिलने के बाद ज्यादा डिविडेंड मिलता है तथा कालांतर में बाजार में शेयरों की कीमत फिर अपना स्थान बना लेती है। इस प्रकार शेयरधारकों को काफी लाभ होता है।
शेयर मार्केट में प्रवेश कैसे करें?
अब यदि अपने चारों ओर लोगों के मुँह से शेयर बाजार से पैसे को दो गुना-तीन गुना बनाने की कहानियाँ सुनकर आप भी शेयर बाजार में धन लगाना चाहते हैं तो ठहर जाइए; क्योंकि इस तरह आस-पास से जुटाई गई, पढ़ी गई सूचनाओं व दोस्तों के कहे अनुसार यदि आपने तुरंत अपना डी-मैट अकाउंट खुलवाकर शेयर खरीद लिये या आई.पी.ओ. में पैसे लगा बैठे तो हो सकता है कि आपको अपने लगाए हुए पैसे का एक-चौथाई ही वापस मिले और आप हताशा में अपने दैनिक काम-काज से भी हाथ धो बैठें! ऐसा कहकर न तो हम शेयर बाजार के प्रति आपके मोह को कम करना चाहते हैं और न ही उसे हौआ बनाकर आपको डरा रहे हैं।
मुख्य बात यह है कि हर वह निवेशक (इनवेस्टर), जो शेयर बाजार में निवेश कर भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था में भागीदार होना चाहता है, वह पूरी तरह जागरूक हो। उसे न सिर्फ शेयर मार्केट से पैसे को दोगुना कैसे किया जाता है, इसका तकनीकी व आधारभूत ज्ञान हो, अपितु वह शेयर बाजार के जोखिम से भी पूरी तरह अवगत हो; क्योंकि आज का भारतीय बाजार अब सट्टा बाजार नहीं है।
यहाँ सभी चीजें वैज्ञानिक तरीकों से पूरी होती हैं, भले ही वह प्राथमिक बाजार हो या द्वितीयक बाजार। कंपनी के प्राइमरी मार्केट के द्वारा पैसे उगाहने से लेकर सूचीबद्ध होने के बाद शेयरों की सेकंडरी मार्केट में खरीद-बिक्री की पूरी प्रक्रिया स्टॉक एक्सचेंज के नियम व कानून के तहत संचालित होती है।
सरकारी एजेंसी ‘सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज बोर्ड’ (सेबी) की निगरानी में सभी एक्सचेंज कार्य करते हैं। इसलिए यदि आप शेयर बाजार की कार्य-प्रणाली को पूरी तरह समझकर अपना पैसा लगाएँगे तो यह तय है कि आप पैसा गँवाएँगे तो नहीं। यदि इस ज्ञान के साथ आप अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करेंगे तो शेयर बाजार से कमाना भी मुश्किल नहीं होगा। तो यदि आप मन बना चुके हैं कि आपको शेयर बाजार में निवेश करना है तो सबसे पहले आपको अपना डी-मैट अकाउंट खुलवाना होगा; क्योंकि अब बिना डी-मैट अकाउंट के आप शेयरों का लेन-देन नहीं कर सकते हैं।
पहले फिजिकल शेयर स्टॉक सर्टिफिकेट के रूप में निवेशकों के पास होते थे; लेकिन अब न सिर्फ शेयरों का लेन-देन डी-मैट शेयर के रूप में हो गया है, बल्कि जिन निवेशकों के पास पुराने शेयर सर्टिफिकेट के रूप में पड़े हैं, उन्हें भी सेबी ने निर्देश दिया है कि वे जल्द-से-जल्द इन शेयरों को डीमैटिरियलाइज्ड फॉर्म में बदल लें।
वे लोग, जो शेयर बाजार में प्रवेश करना चाहते हैं, और वे जिनके पास पुराने शेयर सर्टिफिकेट फिजीकल फॉर्म में पड़े हैं, दोनों ही तरह के निवेशकों के लिए सबसे पहले डी-मैट अकाउंट खुलवाना अति-महत्त्वपूर्ण कार्य है।
प्राथमिक बाजार (प्राइमरी मार्केट) क्या है?
जब कोई कंपनी अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए नए शेयर या डिबेंचर जारी करके सीधे निवेशकों से धन की उगाही करती है तो ऐसा वह कंपनी प्राथमिक बाजार के तहत करती है। कंपनी नए इनीशियल पब्लिक ऑफर प्राथमिक बाजार में लाकर नए शेयर/डिबेंचर जारी करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्राइमरी मार्केट वह जगह है, जहाँ सिक्यूरिटीज (प्रतिभूतियों) को अस्तित्व में लाया जाता है (जैसे आई.पी.ओ. के द्वारा)। प्राथमिक बाजार के विपरीत द्वितीयक बाजार (सेकंडरी मार्केट) में विभिन्न कंपनियों द्वारा पहले से जारी किए गए शेयर/डिबेंचर या अन्य सिक्यूरिटीज का लेन-देन होता है।
कैपिटल (पूँजी) का क्या अर्थ है?
किसी भी कंपनी को अपना व्यवसाय चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है और यह धन उस कंपनी की ‘कैपिटल’ कहलाता है। कंपनी इसे दो प्रकार से हासिल करती है—शेयर जारी करके तथा उधार लेकर। धन की वह अधिकतम मात्रा जो कंपनी नियमानुसार शेयर जारी करके हासिल कर सकती है, कंपनी की ऑथराइज्ड कैपिटल (अधिकृत पूँजी) कहलाती है। इस ऑथराइज्ड कैपिटल में से कंपनी शेयर जारी करके जो पूँजी हासिल करती है, वह उस कंपनी की शेयर कैपिटल कहलाती है।
कंपनी यह शेयर कैपिटल एक ही बार या विभिन्न चरणों में प्राथमिक बाजार में उतरकर, शेयर जारी करके हासिल कर सकती है। किसी भी समय पर, उस समय तक कंपनी द्वारा शेयर जारी करके हासिल की गई पूँजी को ‘पैडअप कैपिटल’ कहा जाता है। ऑथराइज्ड कैपिटल का वह हिस्सा, जिसे कंपनी शेयर के द्वारा धन लेकर हासिल कर चुकी है, कंपनी का इश्यूड कैपिटल कहलाता है।
कई बार जब कंपनी नए शेयर जारी करती है तो शेयरधारकों के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि वे शेयरों की पूरी पूँजी एक साथ चुकाएँ। इसमें शेयरों की कुल पूँजी का कुछ हिस्सा भविष्य की आवश्यकताओं के लिए कंपनी बाद में लेती है। इस प्रकार, नए जारी शेयरों की कुल पूँजी का वह हिस्सा, जो कंपनी अभी आंशिक रूप से इकट्ठा कर रही है, कॉल्ड-अप कैपिटल कहलाता है।
किसी कंपनी की कुल पूँजी (टोटल कैपिटल) कई चीजों से मिलकर बनती है, जैसे कि प्रमोटरों द्वारा निवेश की गई पूँजी, लोन के द्वारा अर्जित की गई पूँजी तथा शेयर जारी करके अर्जित की गई पूँजी इत्यादि। इसमें कंपनी द्वारा शेयर जारी करके अर्जित की गई पूँजी को ‘पैडअप कैपिटल’ कहा जाता है।
कैपिटल इश्यू किसे कहते हैं?
जब कभी कंपनी पूँजी उगाहने के लिए शेयर जारी करती है तो उसे ‘कैपिटल इश्यू’ कहते हैं। यह कैपिटल इश्यू नए इश्यू, प्रीमियम इश्यू या राइट इश्यू के रूप में हो सकता है।
प्रीमियम इश्यू क्या है?
जब कंपनी नए शेयरों की कीमत फेस वैल्यू से ऊपर रखकर जारी करती है तो ऐसे इश्यू को ‘प्रीमियम इश्यू’ कहते हैं। शेयर की फेस वैल्यू से ऊपर रखी गई कीमत उस शेयर पर प्रीमियम कहलाती है। जैसे यदि कोई कंपनी प्राथमिक बाजार में नया पब्लिक इश्यू लाती है तथा उसका प्राइस बैंड 75 से 85 रुपए रखती है, जबकि प्रति शेयर फेस वैल्यू 10 रुपए है। इस प्रकार, इस इश्यू में प्रति शेयर प्रीमियम 65 से 75 रुपए है। इस इश्यू में प्रति शेयर प्रीमियम का निर्धारण कई कारकों से किया जाता है, जैसे कि तत्कालीन शेयरों की बुक वैल्यू क्या है, प्रति शेयर लाभ कितना है, (ई.पी.एस.—‘अर्निंग पर शेयर’) तथा गत तीन वर्षों में शेयर की औसत बाजार कीमत कितनी है इत्यादि।
ओवर सबस्क्राइब्ड इश्यू किसे कहते हैं?
कोई भी पब्लिक इश्यू निर्धारित शेयर मात्रा के लिए जारी किया जाता है। जब इस इश्यू के लिए मिलनेवाले आवेदन-पत्र कंपनी द्वारा जारी निर्धारित शेयर मात्रा से अधिक संख्या में प्राप्त होते हैं तो उसे ‘ओवर सबस्क्राइब्ड इश्यू’ कहा जाता है। ऐसी स्थिति में कंपनी एक नीति बनाकर लॉटरी सिस्टम द्वारा आवेदकों को शेयर आवंटित करती है। जब शेयर बाजार अच्छे दौर (बुलफेज) में होता है, उस समय अच्छी व नामी कंपनियों के पब्लिक इश्यू ओवर सबस्क्राइब्ड होते हैं। ऐसे में जो निवेशक अधिक शेयर संख्या के लिए आवेदन करते हैं, उसकी शेयर प्राप्त करने की संभावनाएँ ज्यादा होती हैं।
ऐट पार व अबोव पार क्या है?
जब किसी शेयर की कीमत उसकी फेस वैल्यू के बराबर हो, तब यह शेयर ‘ऐट पार’ कहलाता है। ऐसी अवस्था में शेयर पर प्रीमियम शून्य होता है तथा शेयर की पार वैल्यू ही शेयर की फेस वैल्यू होती है। उदाहरण के लिए यदि शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपए या 100 रुपए है तो यह इनकी बिक्री की 10 रुपए या 100 रुपए पर की जाएगी। जब शेयर की कीमत उसकी फेस वैल्यू से ज्यादा होती है, अर्थात् उस शेयर पर प्रीमियम होता है, ऐसी अवस्था को ‘अबोव पार’ कहते हैं।
शेयर होल्डर किसे कहते हैं?
कोई भी व्यक्ति या संस्था, जिसका साधारण शेयर या प्रिफरेंस शेयर पर मालिकाना अधिकार होता है, वह ‘शेयर होल्डर’ कहलाता है। शेयरों के मालिकाना सबूत के तौर पर शेयर सर्टिफिकेट्स जारी किए जाते हैं, जो आजकल इलेक्ट्रॉनिक रूप में होते हैं।
शेयर होल्डर्स की इक्विटी क्या है?
कंपनी में किसी भी समय उसकी कुल पूँजी में से कंपनी की सारी देनदारियाँ निकालने के पश्चात् बचा हुआ भाग ‘शेयर होल्डर्स की इक्विटी’ कहलाता है। यह भाग उस कंपनी का ‘नेट वर्थ’ होता है। इस नेट वर्थ में कंपनी द्वारा जारी किए गए कुल शेयरों की फेस वैल्यू, अतिरिक्त धन, कैपिटल सरप्लस तथा अवितरित डिविडेंड शामिल होते हैं।
विभिन्न प्रकार के इश्यू प्राथमिक बाजार में चार तरह के इश्यू से निवेशक रुबरु होता है—
आई.पी.ओ. (इनीशियल पब्लिक ऑफर)
जब गैर-सूचीबद्ध कंपनी (अनलिस्टेड कंपनी) नए शेयर जारी करने के लिए पूँजी बाजार में प्रस्ताव लेकर आती है या ऐसी कंपनी, जो अपनी सिक्यूरिटीज (शेयर्स) पहली बार आम जनता के लिए बाजार में प्रस्तुत करती है तो इस प्रकार के प्रस्ताव को ‘इनीशियल पब्लिक ऑफर’ (आई.पी.ओ.) कहते हैं। आई.पी.ओ. की प्रक्रिया पूरी होने के बाद यह कंपनी सेबी द्वारा शेयर मार्केट में सूचीबद्ध कर दी जाती है।
कंपनी आई.पी.ओ. दो तरीके से जारी कर सकती है—बुक बिल्डिंग रूट तथा फिक्स्ड प्राइस रूट—
बुक बिल्डिंग रूट में कंपनी अपने नए शेयरों के लिए एक प्राइस बैंड तय करती है। निवेशक अपनी इच्छा के अनुसार उस प्राइस बैंड की सीमा में आवेदन करते हैं। इस प्राइस बैंड की ऊपरी और निचली कीमत में अधिकतम अंतर 20 प्रतिशत तक हो सकता है। बुक बिल्डिंग प्रोसेस पूरा होने के पश्चात् शेयर की प्राइस तय की जाती है।
फिक्स्ड प्राइस रूट में कंपनी अपने शेयर की एक निश्चित कीमत प्रस्तुत करती है (फेस वैल्यू पर प्रीमियम लगाकर)। इसमें निवेशक को पहले से शेयर की कीमत पता होती है। सरल शब्दों में कहें, तो किसी कंपनी द्वारा पूँजी उगाही के लिए प्राथमिक बाजार (प्राइमरी मार्केट) में आम जनता के लिए जो प्रारंभिक प्रस्ताव लाया जाता है, उसे ‘इनीशियल पब्लिक ऑफर’ कहते हैं। इसमें संस्थागत निवेशक व रिटेल निवेशक दोनों आवेदन कर सकते हैं।
पब्लिक इश्यू क्या होता है?
जब कोई पहले से सूचीबद्ध कंपनी प्राथमिक बाजार में शेयरों के नए इश्यू लाना चाहती है या अपने होल्डिंग्स (स्वामित्व) का कुछ भाग पब्लिक के लिए प्रस्तुत करना चाहती है तो उसे ‘पब्लिक इश्यू’ कहते हैं। पब्लिक इश्यू की कार्य-शैली इनीशियल पब्लिक ऑफर (आई.पी.ओ.) की तरह होती है।
राइट इश्यू क्या होता है?
साधारणतया जब कोई सूचीबद्ध कंपनी (लिस्टेड कंपनी) अपने नए इश्यू जारी करती है तो वह कंपनी अपने शेयर होल्डरों को प्राथमिकता देते हुए राइट इश्यू जारी करती है। इस राइट इश्यू के तहत कंपनी अपने शेयर होल्डरों को उनकी शेयर संख्या के अनुपात में नए शेयर खरीदने के लिए प्रस्ताव रखती है। शेयर होल्डर अपनी इच्छा के अनुसार इस प्रस्ताव को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकते हैं, या कंपनी के इस प्रस्ताव के लिए किसी अन्य शेयर होल्डर को अधिकृत भी कर सकते हैं। राइट इश्यू के दौरान कंपनी के शेयरों की बाजार कीमतों में परिवर्तन आता है। राइट इश्यू जारी होने से पहले की कीमत शेयर की ‘कम राइट प्राइस’ कहलाती है तथा राइट इश्यू के तहत शेयर आवंटित होने के पश्चात् शेयरों की बाजार कीमत ‘एक्स राइट प्राइस’ कहलाती है। ‘कम राइट प्राइस’ तथा ‘एक्स राइट प्राइस’ का अंतर राइट इश्यू का शेयर बाजार द्वारा किया गया आकलन दर्शाता है।
कम राइट—जब कंपनी राइट इश्यू लाए जाने की घोषणा करती है, तब उस कंपनी के शेयर ‘कम राइट’ शेयर बन जाते हैं। कंपनी एक निश्चित तारीख की घोषणा करती है। इस तारीख से पूर्व के शेयरधारकों को राइट इश्यू का अधिकार होता है। स्वाभाविक है कि ‘कम राइट’ शेयर की कीमतें थोड़ी अधिक होती हैं।
एक्स राइट—कंपनी द्वारा राइट इश्यू जारी करने के पश्चात् शेयर की कीमत से राइट का अंश निकल जाता है और उस समय बाजार में शेयर की स्थिति ‘एक्स राइट’ कहलाती है। प्रीफरेंशियल इश्यू जब कोई सूचीबद्ध कंपनी चुनिंदा निवेशकों के लिए इक्विटी का इश्यू जारी करती है, जिसमें इक्विटी (शेयर) की तय की गई कीमत का तात्कालिक बाजार मूल्य से कोई संबंध नहीं होता। इस प्रकार के इश्यू को ‘प्रीफरेंशियल इश्यू’ कहते हैं।
प्रोस्पेक्टस (विवरण-पुस्तिका) क्या होता है?
पब्लिक इश्यू तथा आई.पी.ओ. जारी करते समय निवेशक की सुविधा के लिए कंपनी कुछ जानकारियाँ प्रस्तुत करती है, जैसे कि कंपनी का क्या बिजनेस है, इसके प्रमोटर्स कौन हैं, मैनजमेंट कौन है, इस कंपनी का किन अन्य कंपनियों के साथ कोलोबोरेशन (गठबंधन) है, बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में कौन हैं, इसके प्रोजेक्ट की क्या कॉस्ट है, वित्तीय व्यवस्था कैसे की जा रही है, प्रोजेक्ट की मौजूदा स्थिति क्या है, लाभ की क्या स्थिति है तथा क्या संभावनाएँ हैं, इश्यू का क्या आकार है, शेयर बाजार में लिस्टिंग की क्या स्थिति है, निवेशक को टैक्स में छूट के क्या प्रावधान हैं, अंडरराइटर्स कौन हैं तथा इश्यू के मैनेजर्स कौन हैं आदि। ये सारी जानकारियाँ निवेशक के निर्णय लेने में सहायक बनती हैं। पब्लिक इश्यू अथवा आई.पी.ओ. जारी करते समय कंपनी प्रोस्पेक्टस में ये सारी जानकारियाँ प्रस्तुत करती है।
शेयरों का आवंटन (अलॉटमेंट ऑफ शेयर्स)
प्राथमिक बाजार में कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू या आई.पी.ओ. लाए जाने पर प्रोस्पेक्टस तथा शेयर एप्लीकेशन फॉर्म जारी किए जाते हैं। आवेदन करने के लिए निवेशक (संस्थागत व आम निवेशक) शेयर एप्लीकेशन फॉर्म जमा करते हैं। यदि शेयरों की आवेदित संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या के बराबर है अथवा उससे कम है, तब इस अवस्था में प्रत्येक निवेशक को उसके द्वारा आवेदित किए गए शेयर आवंटित कर दिए जाते हैं। यदि आवेदित शेयरों की संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या से ज्यादा है, तब शेयरों का आवंटन स्टॉक एक्सचेंज से विमर्श करके किया जाता है। यदि आवेदनों की संख्या कंपनी द्वारा प्रस्तुत शेयरों की संख्या से कई गुना ज्यादा हो तो ऐसी स्थिति में शेयरों का आवंटन लॉटरी सिस्टम से किया जाता है।
आवेदन शुल्क (एप्लीकेशन मनी) के होता है?
नए इश्यू में आवेदन करते समय निवेशक को जो पैसा या धन देना पड़ता है, वह ‘आवेदन शुल्क’ कहलाता है। यह धन आवेदित किए गए शेयरों का पूरा मूल्य अथवा आंशिक मूल्य हो सकता है। आंशिक मूल्य होने की स्थिति में शेयरों के आवंटन के समय बकाया राशि चुकानी पड़ती है।
शेयर वारंट क्या होता है?
शेयर वारंट एक ऐसा विकल्प है, जिसके तहत कोई कंपनी निश्चित संख्या के शेयर निश्चित दर पर, निश्चित समय अवधि में खरीदे जाने के लिए निवेशकों के सामने प्रस्तुत करती है। ऐसे वारंट कंपनी के द्वारा धन उगाही के विकल्प के तौर पर उपयोग में लाए जाते हैं। इसमें निवेशक को यह अंतर्निहित सुविधा होती है कि निर्धारित अवधि में वह धन चुकाकर शेयर हासिल कर ले या ऐसे वारंट सेकंडरी मार्केट में अन्य निवेशक को बेच दे।
फेस वैल्यू क्या होता है?
किसी भी सिक्यूरिटी (शेयर, बांड, डिबेंचर आदि) को जारी करने से पहले उसका साधारण मूल्य जारी करनेवाली कंपनी या संस्था द्वारा तय किया जाता है। इसे उस सिक्यूरिटी की ‘फेस वैल्यू’ कहते हैं। उदाहरण के तौर पर, शेयर 10 रुपए अथवा 5 रुपए की फेस वैल्यू में जारी किए जाते हैं। हालाँकि इस फेस वैल्यू का शेयर के बाजार में कीमत से कोई संबंध नहीं होता है, जबकि डेब्ट (Debt) सिक्यूरिटी (Securities) में फेस वैल्यू उस सिक्यूरिटी का परिपक्वता मूल्य होता है। जैसे सरकार हजार रुपए का बांड जारी करती है—अर्थात् परिपक्वता अवधि पर सरकार उस बांड यूनिट पर एक हजार रुपए चुकाने का आश्वासन देती है। बाजार की भाषा में फेस वैल्यू को ‘पार वैल्यू’ या ‘पार’ भी कहा जाता है।
अलॉटमेंट ऑफ शेयर व रिफंड कैसे होता है?
सेबी द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार शेयरों के आवंटन का आधार इश्यू समाप्त होने के पश्चात् 15 दिनों के अंदर तय किया जाना चाहिए। शेयरों के आवंटन का आधार तय होने के पश्चात् आगामी दो कार्य-दिवसों में आवंटन की सूचना अथवा धन वापसी की सूचना पूरी की जानी चाहिए।
शेयरों का सूचीबद्ध होना (लिस्टिंग ऑफ सिक्यूरिटीज)
इश्यू की समाप्ति के पश्चात् तीन सप्ताह की अवधि में नए शेयर ट्रेडिंग के लिए स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध (लिस्टेड) कर दिए जाते हैं। शेयरों की लिस्टिंग से तात्पर्य है कि इन शेयरों को सेकंडरी मार्केट में खरीदने-बेचने के लिए एक औपचारिक ढाँचा प्रस्तुत किया जाता है। इससे शेयरों की ट्रेडिंग पर निगरानी भी रखी जा सकती है तथा शेयरों के अवैध व्यापार पर नियंत्रण भी।
कंपनियाँ द्वारा पब्लिक के लिए शेयर जारी (इश्यू) करने का कारण
अधिकतर कंपनियाँ निजी व्यवयाय के तौर पर प्रमोटर्स द्वारा स्थापित की जाती हैं। व्यवसाय के दौरान कंपनी अपने विस्तार के लिए बैंक तथा दूसरे वित्तीय संस्थानों से ऋण लेती है। परंतु लंबे व्यवसाय के लिए तथा एक निश्चित आर्थिक आकार के पश्चात् इन कंपनियों को आगे के विकास के लिए अधिक धन की जरूरत पड़ती है और सरकारी नियमों के तहत इसमें आम जनता की भागीदारी की जरूरत होती है। इस अवस्था में ये कंपनियाँ अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए तथा उसमें आम जनता की भागीदारी के लिए प्राथमिक बाजार में सेबी के नियमों के तहत पब्लिक इश्यू लाती हैं। पब्लिक इश्यू के तहत निवेशकों को शेयर आवंटित होने के पश्चात् ये कंपनियाँ शेयर बाजार में ट्रेडिंग के लिए सूचीबद्ध (लिस्टेड) हो जाती हैं।
इश्यू प्राइस क्या होता है?
वह कीमत (प्राइस), जिस पर कंपनी के शेयर प्राथमिक बाजार (प्राइमरी मार्केट) में जारी किए जाते हैं, वह शेयर की ‘इश्यू प्राइस’ कहलाती है। शेयर के सूचीबद्ध होने के बाद जिस कीमत पर शेयर का लेन-देन (ट्रेडिंग) होता है, वह उस शेयर की ‘मार्केट प्राइस’ (बाजार कीमत) कहलाती है। यह मार्केट प्राइस इश्यू प्राइस से ज्यादा या कम, कुछ भी हो सकती है।
कट ऑफ प्राइस (प्राइस बैंड) क्या होता है?
बुक-बिल्डिंग इश्यू में शेयर जारी करनेवाली कंपनी को अपने प्रोस्पेक्टस में फ्लोर प्राइस अथवा प्राइस बैंड को उल्लेखित करना जरूरी होता है। अंत में जिस कीमत का निर्धारण किया जाता है, वह इश्यू प्राइस, प्राइस बैंड में निर्धारित सीमा के बीच कुछ भी हो सकती है या वह कीमत फ्लोर प्राइस से भी ज्यादा हो सकती है। इस इश्यू प्राइस को ‘कट ऑफ प्राइस’ भी कहते हैं। इस इश्यू प्राइस का निर्धारण शेयर जारी करनेवाले और लीड मैनेजर्स द्वारा निवेशकों के उस शेयर के प्रति रुख को देखकर किया जाता है।
फ्लोर प्राइस क्या होता है?
बुक बिल्डिंग प्रक्रिया में फ्लोर प्राइस वह न्यूनतम कीमत है, जिस पर दावेदारी Bid (बिड) की जा सकती है। प्रोस्पेक्टस में या तो सिक्यूरिटीज की फ्लोर प्राइस का उल्लेख होता है या फिर प्राइस बैंड का, जिस पर निवेशक बिड कर सकें।
ओवरवैल्यूड शेयर्स (बहुत अधिक दाम लगाया हुआ शेयर) क्या होता है?
सामान्य अवस्था में किसी शेयर की बाजार कीमत उसके प्रति शेयर अर्निंग या प्राइस अर्निंग (P/E) अनुपात (कीमत/लाभ या प्राइस/अर्निंग रेशियो) से तय होती है। लेकिन शेयर बाजार में सदैव अनुमान के आधार पर खरीद-फरोख्त होती है, इसलिए अधिकतर उन कंपनियों के शेयर अपनी तार्किक कीमत से ऊँचे आँके जाते हैं, जिन कंपनियों की छवि निवेशकों में अच्छी होती है। ऐसे शेयर ‘ओवरवैल्यूड शेयर्स’ कहलाते हैं। शेयर सूचकांक (इंडेक्स) को झटका लगने पर सबसे पहले ऐसे शेयरों की ओवरवैल्यू गायब होती है तथा ये अपनी तार्किक कीमत के आस-पास पहुँच जाते हैं। शेयर बाजार में उतार (करेक्शन) आने पर प्रायः ऐसा देखा जाता है; और यही सही समय है जब निवेशक कम कीमत पर ब्लूचिप कंपनियों (अच्छी साख वाली कंपनियों) के शेयर खरीद सकता है।
लीड मर्चेंट बैंकर क्या होता है?
ये किसी भी कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू या आई.पी.ओ. लाए जाने की सारी कार्यवाही में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ये किसी इश्यू की सारी तकनीकी जानकारी, उसकी वैधता तथा संभावना का गहन अध्ययन करते हैं। पब्लिक इश्यू लानेवाली कंपनी इनके साथ एम.ओ.यू. (मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग) का करार करती है। लीड मर्चेंट कंपनी के लिए अंडर राइटर्स की व्यवस्था करते हैं। यदि किसी पब्लिक इश्यू को निवेशकों का पूरा समर्थन नहीं मिले, अर्थात् जितने शेयरों के लिए पब्लिक इश्यू का ऑफर लाया गया हो तथा निवेशकों का कुल आवेदन उससे कम रह जाए तो ऐसी स्थिति में बचे हुए शेयरों की खरीदारी अंडर राइटर्स पहले से तय दर पर करते हैं। इस प्रकार कंपनी द्वारा पब्लिक इश्यू को बाजार में उतारने के खतरों को अंडर राइटर्स कम करते हैं।
अमोर्टाइजेशन (ऋण या खर्च चुकाने का तरीका) क्या होता है?
कोई भी कंपनी भविष्य में आधुनिकीकरण या नवीनीकरण हेतु निश्चित धन ‘सिंकिंग फंड’ में जमा करती रहती है, ताकि जरूरत पड़ने पर नवीनीकरण की भारी लागत को झेला जा सके। कंपनी द्वारा अपनाई जानेवाली यह व्यवस्था अमोटाइजेशन कहलाती है।
बुक क्लोजर (रिकॉर्ड डेट) क्या होता है?
कंपनी प्रतिवर्ष डिविडेंड, बोनस या राइट शेयर्स घोषित करने से पहले शेयर सदस्यों का रजिस्टर निश्चित अवधि के लिए (एक सप्ताह से लेकर एक महीने तक) बंद रखती है। इस अवधि के दौरान शेयरों का स्थानांतरण नहीं हो सकता है। इसे ‘बुक क्लोजर’ कहते हैं। केवल वे शेयरधारक ही डिविडेंड, बोनस शेयर या राइट शेयर के पात्र होंगे, जिनका नाम कंपनी के रजिस्टर में बुक क्लोजर से पहले दर्ज है। इस अवधि के पश्चात् जब कंपनी डिविडेंड बोनस या राइट इश्यू घोषित करती है तो शेयरों की कीमत में परिवर्तन आता है।
बुक वैल्यू क्या होता है?
किसी कंपनी की कोई संपत्ति (जैसे मशीन) की कीमत जो बैलेंस शीट पर दर्ज होती है, वह उसकी ‘बुक वैल्यू’ कहलाती है। चूँकि संपत्ति का निरंतर अवमूल्यन होता है, अतः बुक वैल्यू प्रतिवर्ष कम होती रहती है। यदि शेयर होल्डर्स के फंड को शेयरों की संख्या से विभाजित किया जाए तो प्रति शेयर बुक वैल्यू प्राप्त होती है।
डिविडेंड (लाभांश) क्या होता है?
कंपनी अपने व्यापार से अर्जित लाभ पर टैक्स इत्यादि चुकाने के पश्चात् इसका कुछ हिस्सा वर्ष में एक या दो बार शेयरधारकों को उनकी भागीदारी के अनुपात में डिविडेंड के रूप में वितरित करती है। यह डिविडेंड शेयर की फेस वैल्यू पर आधारित होता है, न कि उसकी बाजार कीमत पर। बोनस शेयर भी डिविडेंड का ही एक रूप है।
टैक्स इत्यादि चुकता करने के पश्चात् बचे हुए लाभ का वह हिस्सा, जो डिविडेंड के रूप में शेयरधारकों में वितरित किया जाता है, ‘डिविडेंड कवर’ कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि नेट प्रॉफिट का चौथा हिस्सा डिविडेंड के रूप में वितरित किया जाता है तो कहा जाता है कि डिविडेंड कवर चार है—अर्थात् जितना अधिक डिविडेंड कवर बढ़ेगा, उतना ही शेयरधारकों को कम डिविडेंड प्राप्त होगा।
प्रति शेयर डिविडेंड को उस शेयर की बाजार कीमत से विभाजित करके प्रतिशत के रूप में निरूपित किया जाए तो यह ‘डिविडेंड यील्ड’ कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि कोई कंपनी 50 प्रतिशत डिविडेंड घोषित करती है, उसके शेयर की बाजार कीमत 250 रुपए है तथा शेयर की फेस वैल्यू 10 रुपए है, तब डिविडेंड यील्ड— यह 2 प्रतिशत डिविडेंड यील्ड है। यह आँकड़ा कंपनी द्वारा घोषित डिविडेंड तथा उस शेयर की बाजार कीमत में संबंध दरशाता है।
कम बोनस क्या होता है?
बोनस की संभावना लिये हुए शेयर्स ‘कम बोनस’ कहलाते हैं। अर्थात् कोई कंपनी अपने शेयरों पर बोनस इश्यू घोषित करने वाली है तो बुक क्लोजर/रिकॉर्ड डेट से पहले इस कंपनी के शेयरों में बोनस की संभावना शामिल होती है। बाजार की भाषा में इन शेयरों को ‘कम बोनस’ कहा जाता है। स्वाभाविक है कि इन शेयरों की कीमतों में बोनस शेयर का संभावित लाभ भी शामिल होता है।
कम डिविडेंड क्या होता है?
किसी कंपनी द्वारा डिविडेंड घोषित करने से पहले (बुक क्लोजर/रिकॉर्ड डेट से पहले) शेयरों की कीमत में संभावित डिविडेंड का लाभ भी छिपा होता है। ऐसे शेयर ‘कम डिविडेंड’ कहलाते हैं।
एक्स बोनस क्या होता है?
कंपनी द्वारा बोनस घोषित करने के पश्चात् शेयर की कीमत से संभावित बोनस का अंश निकल जाता है। उस समय बाजार में उसकी कीमत ‘एक्स बोनस प्राइस’ कहलाती है।
एक्स डिविडेंड डेट क्या होता है?
कंपनी द्वारा सार्वजनिक रूप से घोषित की गई तारीख, जिसके पश्चात् शेयर की खरीद पर लाभांश का हक नहीं होता, उसे ‘एक्स डिविडेंड डेट’ कहते हैं। यदि बाकी अन्य स्थितियाँ अपरिवर्तित रहें तो इस तारीख के बाद शेयर की कीमत में थोड़ी गिरावट आती है।
डेप्रिसिएशन (संपत्ति की कीमत में कमी होना) क्या होता है?
किसी भी कंपनी की अचल संपत्ति जैसे कि प्लांट, मशीन बिल्डिंग इत्यादि की एक निश्चित वर्किंग लाइफ होती है। प्रतिवर्ष इस आयु में कमी होती है तथा बची हुई आयु (रेजिडूएल लाइफ) के अनुसार उसकी कीमत का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है। इस प्रक्रिया को ‘डेप्रिसिएशन’ कहते हैं। सरल शब्दों में, किसी संपत्ति की आयु 20 वर्ष है तो प्रतिवर्ष उसकी कीमत में 5 प्रतिशत की कटौती करके डेप्रिसिएशन किया जाता है।
मंदी का दौर (डिप्रेशन)क्या होता है?
आर्थिक गतिविधियों में उतार का दौर, जिसमें कीमतों में गिरावट, माँग में कमी, बेरोजगारी का बढ़ना, शेयर बाजार में गिरावट आदि से आँका जा सकता है। इसे ‘डिप्रेशन’ या ‘मंदी का दौर’ कहा जाता है। प्रायः कंपनियाँ इस दौरान पब्लिक इश्यू और आई.पी.ओ. लाने से बचती हैं।
अवमूल्यन (डिवैल्यूएशन) क्या होता है?
जब देश की मुद्रा की कीमत एक्सचेंज रेट के रूप में अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में कम कर दी जाती है तो उसे ‘अवमूल्यन’ कहते हैं। इस कारण आयातित माल की कीमतें बढ़ जाती हैं, जबकि विदेशों के लिए इस देश का निर्यात किया जानेवाला माल सस्ता होता है, जिससे निर्यात में बढ़ोतरी होती है।
विनिवेश (डिसइनवेस्टमेंट) क्या होता है?
जब कोई कंपनी अपने द्वारा स्थापित संपत्ति या कैपिटल में कमी करती है, (संपत्ति को बेचकर अथवा नवीनीकरण को नकारकर) तो इसे ‘विनिवेश’ कहते हैं। कंपनी प्रायः अनुत्पादक इकाइयों (घाटे में चल रही) से छुटकारा पाने के लिए ऐसा करती है।
दोहरी सूचीबद्धता (ड्यूल लिस्टिंग) क्या होता है?
जब कोई शेयर एक से अधिक स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हो तो उसे उस शेयर की ‘दोहरी सूचीबद्धता’ कहा जाता है। इससे उस शेयर के कारोबार को बढ़ावा मिलता है।
डेड इश्यू (Dead Issues) क्या होता है?
ऐसा पब्लिक इश्यू, जिसे बहुत जोर-शोर से पब्लिसिटी कर बाजार में उतारा गया हो, लेकिन यदि वह निवेशकों को लाभ पहुँचाने में असफल रहता है तो ऐसे इश्यू को ‘डेड इश्यू’ कहते हैं। ऐसे केस में कंपनी या तो ऑपरेशन शुरू ही नहीं करती है या फिर बिजनेस शुरू करते ही लिक्विडेशन की प्रक्रिया शुरू कर देती है।
डल मार्केट (बाइंग व सेलिंग प्राइस) क्या होता है?
जब शेयरों के क्रय व विक्रय मूल्य में (बाइंग व सेलिंग प्राइस) में दीर्घ अंतर हो तो ट्रेडिंग की प्रक्रिया में मंदी आ जाती है। स्टॉक एक्सचेंज में ऐसी स्थिति को ‘डल मार्केट’ कहा जाता है। ऐसी स्थिति में वित्तीय संस्थान स्थिति के अनुसार संस्थागत खरीद व बिक्री करते हैं, जिससे स्टॉक एक्सचेंज में हलचल पैदा हो तथा ट्रेडिंग अपनी गति पकड़ सके।
अर्निंग यील्ड किसे कहते हैं?
किसी कंपनी के कर पश्चात् नेट प्रॉफिट लाभ को उसके शेयरों की कुल बाजार कीमत से विभाजित किया जाए तो प्राप्त आँकड़ा शेयरों की ‘अर्निंग यील्ड’ कहलाता है। जो कंपनियाँ निवेशकों की नजर में ऊँची आँकी जाती हैं, उनकी अर्निंग यील्ड कम होती है; क्योंकि उनके शेयरों की बाजार कीमत ज्यादा होती है। इसके विपरीत, हाई अर्निंग यील्ड उस कंपनी में निवेशकों का कमजोर विश्वास दरशाता है।
ग्रोइंग प्राइवेट किसे कहते हैं?
जब कंपनी स्वयं अपने शेयर सेकंडरी मार्केट (द्वितीयक बाजार) से खरीदने लगे, ताकि कंपनी का स्वामित्व कंपनी के कुछ प्रमोटरों के हाथ में वापस आ सके या किसी निजी खरीदार के द्वारा कंपनी के अधिकांश शेयर खरीद लिये जाएँ तो ऐसी स्थिति में कंपनी पर मालिकाना हक निजी व्यक्ति के हाथ में चला जाता है। प्रायः ऐसी स्थिति तब आती है, जब कंपनी का व्यवसाय अच्छा नहीं चल रहा हो तथा उसके शेयरों की बाजार कीमत बुक वैल्यू से भी नीचे आ जाए। तब कंपनी प्रबंधन सस्ती दरों पर अपने शेयर सेकंडरी मार्केट से खरीद लेता है। ऐसा करके कंपनी प्रबंधन कंपनी को किसी दूसरे के द्वारा हथियाए (टेक ओवर किए) जाने की संभावना को भी टाल सकता है।
ग्रोइंग पब्लिक किसे कहते हैं?
जब कोई निजी कंपनी अपना विस्तार करने के लिहाज से अपने शेयर पब्लिक इश्यू लाकर बिक्री के लिए आम जनता के लिए प्रस्तुत करे तो इस स्थिति को ‘ग्रोइंग पब्लिक’ कहते हैं।
संस्थागत दलाल (इंस्टीट्यूशनल ब्रोकर) किसे कहते हैं?
म्यूचुअल फंड, यूनिट ट्रस्ट, एल.आई.सी. या अन्य दूसरे संस्थानों के लिए शेयर बाजार से शेयरों और बांडों की खरीद व बिक्री करनेवाला ब्रोकर ‘इंस्टीट्यूशनल ब्रोकर’ कहलाता है। संस्थागत ब्रोकर भारी संख्या में खरीद-फरोख्त करते हैं तथा इन्हें आम निवेशक की तुलना में काफी कम कमीशन चुकाना होता है।
संस्थागत निवेशक (इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर) किसे कहते हैं?बैंक, म्यूचुअल फंड, यूनिट ट्रस्ट तथा लाइफ इंश्योरेंस कंपनियाँ इत्यादि सिक्यूरिटीज (शेयर्स और बांड) के संस्थागत निवेशक होते हैं। संस्थागत निवेशक बड़ी मात्रा में खरीद-फरोख्त करते हैं। अतः ये शेयर मार्केट में सहायक की भूमिका (सपोर्टिव रोल) अदा करते हैं। जब आम निवेशक व सट्टेबाज शेयर मार्केट से आशंकित होकर ट्रेडिंग गतिविधियों से दूर रहते हैं, ऐसी अवस्था में संस्थागत निवेशक अपना प्रभाव दिखाकर शेयर मार्केट में गतिविधि बनाए रखते हैं।
तरलता (लिक्विडिटी) किसे कहते हैं?
नकद (कैश) की उपलब्धता अथवा ऐसी संपत्ति का स्वामित्व, जिसे तुरंत नकदी में परिवर्तित किया जा सके, ‘लिक्विडिटी’ या ‘तरलता’ कहलाता है। यद्यपि बाजार में किसी भी संपत्ति को औने-पौने दामों में बेचकर नकदी हासिल की जा सकती है, परंतु यह स्वस्थ स्थिति नहीं है। तरलता की सही स्थिति में ऐसी संपत्ति को बाजार में सही दामों पर बेचे जाने का माहौल होना चाहिए।
सूचीबद्ध शेयर (लिस्टेड शेयर) किसे कहते हैं?
वे शेयर, जो स्टॉक एक्सचेंज में खरीद-बिक्री (ट्रेडिंग) के लिए दर्ज होते हैं, ‘सूचीबद्ध शेयर’ या ‘लिस्टेड शेयर’ कहलाते हैं। इनके साथ निम्न सुविधाएँ जुड़ी होती हैं—
स्टॉक एक्सचेंज के माध्यम से वास्तविक बाजार कीमत पर इनका लेन-देन किया जा सकता है।
इन्हें कभी भी तरलता (लिक्विडिटी) में बदला जा सकता है।
इनकी कीमतों का सही मूल्यांकन होता है।
इनकी कीमतों के बारे में लगातार जानकारी उपलब्ध होती है।
इनकी कंपनियों के बारे में सूचनाएँ उपलब्ध रहती हैं।
स्टॉक एक्सचेंज इन शेयरों के नियमानुसार लेन-देन पर कड़ी नजर रखता है।
मर्चेंट बैंक किसे कहते हैं?
ये कमर्शियल बैंक से अलग होते हैं। इनका कारोबार इंपोर्ट-एक्सपोर्ट ट्रेडिंग (आयात-निर्यात खरीद-बिक्री) तथा कंपनियों, उद्योग-धंधों के लिए देश-विदेश से वित्तीय संसाधन इत्यादि जुटाना होता है। ये मर्चेंट बैंक कंपनियों की तरफ से शेयर व डिबेंचर भी जारी करते हैं तथा उन्हें अंडरराइट की सुविधा देते हैं। ये कंपनियों के अधिग्रहण तथा विलय (टेकओवर व मर्जर) में भी शामिल रहते हैं। मोटे तौर पर इन्हें कंपनियों का ‘कंसल्टेंट भागीदार’ कहा जा सकता है।
म्यूचुअल फंड (साझा कोष) क्या होता है?
ये फंड (कोष) निवेश कंपनियों तथा बैंकों द्वारा चलाए जाते हैं। ये म्यूचुअल फंड निवेशकों के धन को विभिन्न प्रकार की सिक्यूरिटी जैसे कि शेयर, डिबेंचर, बांड इत्यादि में निवेश करते हैं। ऐसे फंड में निवेश का समय एक निश्चित अवधि अथवा ओपन एंडेड (निर्बंध) हो सकता है। म्यूचुअल फंड के निवेशकों को यह सुविधा होती है कि शेयर बाजार की जटिल तकनीकी जानकारियों से अवगत हुए बिना वे इसमें निवेश कर सकते हैं। इसमें निवेशक से जुड़े खतरे की कमी के साथ आकर्षक डिविडेंड तथा संतोषजनक रिटर्न मिलता है। म्यूचुअल फंड के प्रबंधक निवेशकों के धन को विभिन्न प्रकार की सिक्यूरिटीज तथा विभिन्न प्रकार की कंपनियों में लगाते हैं, जिससे निवेश से जुड़ा खतरा कम हो जाता है। निवेशकों द्वारा शेयर बाजार में सीधे निवेश की तुलना में म्यूचुअल फंड की मार्फत निवेश में जोखिम कम होता है।
नेट असेट वैल्यू (N.A.V.) क्या होता है?
किसी भी म्यूचुअल फंड द्वारा निवेश की गई पूँजी की सिक्यूरिटीज की बाजार कीमत में से सारी देनदारी निकालने के पश्चात् प्रति सिक्यूरिटी जो मूल्य आता है, वह उस म्यूचुअल फंड की ‘नेट असेट वैल्यू’ कहलाता है। सिक्यूरिटीज की बाजार कीमतों में बदलाव आने पर नेट असेट वैल्यू में भी परिवर्तन आता है। ‘एन.ए.वी.’ में वृद्धि निवेशकों के लाभ को दरशाती है तथा म्यूचुअल फंड प्रबंधकों की क्षमता का प्रदर्शन भी इससे परिलक्षित होता है।
रिस्क (जोखिम) क्या है?
शेयर बाजार में निवेश के साथ हानि-लाभ जुड़ा रहा है। हानि की संभावना को ‘जोखिम’ (रिस्क) कहा जाता है। इस प्रकार किए गए निवेश में निम्न संभावित जोखिम जुड़े होते हैं—
कंपनी को लाभ नहीं होने की स्थिति में कोई डिविडेंड घोषित नहीं किया जाना।
कंपनी को अपेक्षित लाभ न होने की स्थिति में काफी कम डिविडेंड घोषित किया जाना।
लंबे समय तक शेयरों की कीमतों में परिवर्तन न हो अथवा शेयरों की कीमतों में आई गिरावट में लंबे समय तक सुधार न हो।
कंपनी व्यापार में असफल हो जाए तथा कंपनी बंद करनी पडे़, ऐसी स्थिति में शेयरधारकों की लगभग सारी पूँजी घाटे में चली जाती है।